हम उस निगाह-ए-नाज़ को समझे थे नेश्तर
तुम ने तो मुस्कुरा के रग-ए-जाँ बना दिया
Javed Akhtar
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ये इश्क़ ने देखा है ये अक़्ल से पिन्हाँ है
हल कर लिया मजाज़ हक़ीक़त के राज़ को
आरिज़-ए-नाज़ुक पे उन के रंग सा कुछ आ गया
यहाँ कोताही-ए-ज़ौक़-ए-अमल है ख़ुद गिरफ़्तारी
मौजों का अक्स है ख़त-ए-जाम-ए-शराब में
ये भी फ़रेब से हैं कुछ दर्द आशिक़ी के
ज़ौक़-ए-सरमस्ती को महव-ए-रू-ए-जानाँ कर दिया
बिस्तर-ए-ख़ाक पे बैठा हूँ न मस्ती है न होश
'असग़र' ग़ज़ल में चाहिए वो मौज-ए-ज़िंदगी
इश्वों की है न उस निगह-ए-फ़ित्ना-ज़ा की है
ज़ुल्फ़ थी जो बिखर गई रुख़ था कि जो निखर गया