आरिज़-ए-नाज़ुक पे उन के रंग सा कुछ आ गया
इन गुलों को छेड़ कर हम ने गुलिस्ताँ कर दिया
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अक्स किस चीज़ का आईना-ए-हैरत में नहीं
'असग़र' हरीम-ए-इश्क़ में हस्ती ही जुर्म है
तिरे जल्वों के आगे हिम्मत-ए-शरह-ओ-बयाँ रख दी
जान-ए-नशात हुस्न की दुनिया कहें जिसे
इक अदा इक हिजाब इक शोख़ी
मैं कामयाब-ए-दीद भी महरूम-ए-दीद भी
ज़ौक़-ए-सरमस्ती को महव-ए-रू-ए-जानाँ कर दिया
'असग़र' से मिले लेकिन 'असग़र' को नहीं देखा
न खुले उक़्दा-हा-ए-नाज़-ओ-नियाज़
कोई महमिल-नशीं क्यूँ शाद या नाशाद होता है
क्या मस्तियाँ चमन में हैं जोश-ए-बहार से
ये नंग-ए-आशिक़ी है सूद ओ हासिल देखने वाले