'असग़र' हरीम-ए-इश्क़ में हस्ती ही जुर्म है
रखना कभी न पाँव यहाँ सर लिए हुए
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वो नग़्मा बुलबुल-ए-रंगीं-नवा इक बार हो जाए
हम उस निगाह-ए-नाज़ को समझे थे नेश्तर
मुझ को ख़बर रही न रुख़-ए-बे-नक़ाब की
तू एक नाम है मगर सदा-ए-ख़्वाब की तरह
इश्वों की है न उस निगह-ए-फ़ित्ना-ज़ा की है
यूँ मुस्कुराए जान सी कलियों में पड़ गई
ऐ शैख़ वो बसीत हक़ीक़त है कुफ़्र की
अल्लाह-रे चश्म-ए-यार की मोजिज़-बयानियाँ
ज़ौक़-ए-सरमस्ती को महव-ए-रू-ए-जानाँ कर दिया
उस जल्वा-गाह-ए-हुस्न में छाया है हर तरफ़
वो शोरिशें निज़ाम-ए-जहाँ जिन के दम से है
जो नक़्श है हस्ती का धोका नज़र आता है