'असग़र' से मिले लेकिन 'असग़र' को नहीं देखा
अशआ'र में सुनते हैं कुछ कुछ वो नुमायाँ है
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नहीं दैर ओ हरम से काम हम उल्फ़त के बंदे हैं
कुछ मिलते हैं अब पुख़्तगी-ए-इश्क़ के आसार
क्या मस्तियाँ चमन में हैं जोश-ए-बहार से
ख़ुदा जाने कहाँ है 'असग़र'-ए-दीवाना बरसों से
लज़्ज़त-ए-सज्दा-हा-ए-शौक़ न पूछ
असरार-ए-इश्क़ है दिल-ए-मुज़्तर लिए हुए
रूदाद-ए-चमन सुनता हूँ इस तरह क़फ़स में
वो नग़्मा बुलबुल-ए-रंगीं-नवा इक बार हो जाए
जो नक़्श है हस्ती का धोका नज़र आता है
ये भी फ़रेब से हैं कुछ दर्द आशिक़ी के
सिर्फ़ इक सोज़ तो मुझ में है मगर साज़ नहीं
ये इश्क़ ने देखा है ये अक़्ल से पिन्हाँ है