क्या मस्तियाँ चमन में हैं जोश-ए-बहार से
हर शाख़-ए-गुल है हाथ में साग़र लिए हुए
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इक अदा इक हिजाब इक शोख़ी
कौन था उस के हवा-ख़्वाहों में जो शामिल न था
वो नग़्मा बुलबुल-ए-रंगीं-नवा इक बार हो जाए
अल्लाह-रे चश्म-ए-यार की मोजिज़-बयानियाँ
छुट जाए अगर दामन-ए-कौनैन तो क्या ग़म
हल कर लिया मजाज़ हक़ीक़त के राज़ को
पहली नज़र भी आप की उफ़ किस बला की थी
मस्ती में फ़रोग़-ए-रुख़-ए-जानाँ नहीं देखा
न ये शीशा न ये साग़र न ये पैमाना बने
बिस्तर-ए-ख़ाक पे बैठा हूँ न मस्ती है न होश
कोई महमिल-नशीं क्यूँ शाद या नाशाद होता है
मौजों का अक्स है ख़त-ए-जाम-ए-शराब में