इक अदा इक हिजाब इक शोख़ी
नीची नज़रों में क्या नहीं होता
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मस्ती में फ़रोग़-ए-रुख़-ए-जानाँ नहीं देखा
ज़ुल्फ़ थी जो बिखर गई रुख़ था कि जो निखर गया
क्या क्या हैं दर्द-ए-इश्क़ की फ़ित्ना-तराज़ियाँ
सौ बार तिरा दामन हाथों में मिरे आया
छुट जाए अगर दामन-ए-कौनैन तो क्या ग़म
हर इक जगह तिरी बर्क़-ए-निगाह दौड़ गई
मता-ए-ज़ीस्त क्या हम ज़ीस्त का हासिल समझते हैं
हल कर लिया मजाज़ हक़ीक़त के राज़ को
नियाज़-ए-इश्क़ को समझा है क्या ऐ वाइज़-ए-नादाँ
मैं कामयाब-ए-दीद भी महरूम-ए-दीद भी
आरिज़-ए-नाज़ुक पे उन के रंग सा कुछ आ गया
है दिल-ए-नाकाम-ए-आशिक़ में तुम्हारी याद भी