छुट जाए अगर दामन-ए-कौनैन तो क्या ग़म
लेकिन न छुटे हाथ से दामान-ए-मोहम्मद
Rahat Indori
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तू एक नाम है मगर सदा-ए-ख़्वाब की तरह
इश्क़ की बेताबियों पर हुस्न को रहम आ गया
ज़ौक़-ए-सरमस्ती को महव-ए-रू-ए-जानाँ कर दिया
आलम से बे-ख़बर भी हूँ आलम में भी हूँ मैं
जो नक़्श है हस्ती का धोका नज़र आता है
वो नग़्मा बुलबुल-ए-रंगीं-नवा इक बार हो जाए
रूदाद-ए-चमन सुनता हूँ इस तरह क़फ़स में
ख़ुदा जाने कहाँ है 'असग़र'-ए-दीवाना बरसों से
वो शोरिशें निज़ाम-ए-जहाँ जिन के दम से है
यूँ न मायूस हो ऐ शोरिश-ए-नाकाम अभी
इक अदा इक हिजाब इक शोख़ी