अल्लाह-रे चश्म-ए-यार की मोजिज़-बयानियाँ
हर इक को है गुमाँ कि मुख़ातब हमीं रहे
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आलम से बे-ख़बर भी हूँ आलम में भी हूँ मैं
नियाज़-ए-इश्क़ को समझा है क्या ऐ वाइज़-ए-नादाँ
एक ऐसी भी तजल्ली आज मय-ख़ाने में है
ये नंग-ए-आशिक़ी है सूद ओ हासिल देखने वाले
गर्म-ए-तलाश-ओ-जुस्तुजू अब है तिरी नज़र कहाँ
मिरी वहशत पे बहस-आराइयाँ अच्छी नहीं ज़ाहिद
वहीं से इश्क़ ने भी शोरिशें उड़ाई हैं
मैं कामयाब-ए-दीद भी महरूम-ए-दीद भी
नहीं दैर ओ हरम से काम हम उल्फ़त के बंदे हैं
मौजों का अक्स है ख़त-ए-जाम-ए-शराब में
सामने उन के तड़प कर इस तरह फ़रियाद की