आलाम-ए-रोज़गार को आसाँ बना दिया
जो ग़म हुआ उसे ग़म-ए-जानाँ बना दिया
Rahat Indori
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सौ बार तिरा दामन हाथों में मिरे आया
हुस्न को वुसअतें जो दीं इश्क़ को हौसला दिया
अक्स किस चीज़ का आईना-ए-हैरत में नहीं
आशोब-ए-हुस्न की भी कोई दास्ताँ रहे
मौजों का अक्स है ख़त-ए-जाम-ए-शराब में
पाता नहीं जो लज़्ज़त-ए-आह-ए-सहर को मैं
हम उस निगाह-ए-नाज़ को समझे थे नेश्तर
इक आलम-ए-हैरत है फ़ना है न बक़ा है
वो नग़्मा बुलबुल-ए-रंगीं-नवा इक बार हो जाए
यहाँ कोताही-ए-ज़ौक़-ए-अमल है ख़ुद गिरफ़्तारी