यहाँ कोताही-ए-ज़ौक़-ए-अमल है ख़ुद गिरफ़्तारी
जहाँ बाज़ू सिमटते हैं वहीं सय्याद होता है
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'असग़र' ग़ज़ल में चाहिए वो मौज-ए-ज़िंदगी
जान-ए-नशात हुस्न की दुनिया कहें जिसे
पाता नहीं जो लज़्ज़त-ए-आह-ए-सहर को मैं
अक्स किस चीज़ का आईना-ए-हैरत में नहीं
एक ऐसी भी तजल्ली आज मय-ख़ाने में है
ये भी फ़रेब से हैं कुछ दर्द आशिक़ी के
जो नक़्श है हस्ती का धोका नज़र आता है
बिस्तर-ए-ख़ाक पे बैठा हूँ न मस्ती है न होश
लज़्ज़त-ए-सज्दा-हा-ए-शौक़ न पूछ
मैं कामयाब-ए-दीद भी महरूम-ए-दीद भी
आलम से बे-ख़बर भी हूँ आलम में भी हूँ मैं
रूदाद-ए-चमन सुनता हूँ इस तरह क़फ़स में