सौ बार तिरा दामन हाथों में मिरे आया
जब आँख खुली देखा अपना ही गरेबाँ था
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मजाज़ कैसा कहाँ हक़ीक़त अभी तुझे कुछ ख़बर नहीं है
क्या क्या हैं दर्द-ए-इश्क़ की फ़ित्ना-तराज़ियाँ
जीना भी आ गया मुझे मरना भी आ गया
मैं क्या कहूँ कहाँ है मोहब्बत कहाँ नहीं
मुझ को ख़बर रही न रुख़-ए-बे-नक़ाब की
इक अदा इक हिजाब इक शोख़ी
कुछ मिलते हैं अब पुख़्तगी-ए-इश्क़ के आसार
पहली नज़र भी आप की उफ़ किस बला की थी
यहाँ कोताही-ए-ज़ौक़-ए-अमल है ख़ुद गिरफ़्तारी
सिर्फ़ इक सोज़ तो मुझ में है मगर साज़ नहीं
वो नग़्मा बुलबुल-ए-रंगीं-नवा इक बार हो जाए
हम उस निगाह-ए-नाज़ को समझे थे नेश्तर