मैं क्या कहूँ कहाँ है मोहब्बत कहाँ नहीं
रग रग में दौड़ी फिरती है नश्तर लिए हुए
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लज़्ज़त-ए-सज्दा-हा-ए-शौक़ न पूछ
ये क्या कहा कि ग़म-ए-इश्क़ नागवार हुआ
मजाज़ कैसा कहाँ हक़ीक़त अभी तुझे कुछ ख़बर नहीं है
इश्क़ की बेताबियों पर हुस्न को रहम आ गया
मिरी वहशत पे बहस-आराइयाँ अच्छी नहीं ज़ाहिद
लोग मरते भी हैं जीते भी हैं बेताब भी हैं
असरार-ए-इश्क़ है दिल-ए-मुज़्तर लिए हुए
मता-ए-ज़ीस्त क्या हम ज़ीस्त का हासिल समझते हैं
मस्ती में फ़रोग़-ए-रुख़-ए-जानाँ नहीं देखा
हुस्न को वुसअतें जो दीं इश्क़ को हौसला दिया
हम उस निगाह-ए-नाज़ को समझे थे नेश्तर
क्या क्या हैं दर्द-ए-इश्क़ की फ़ित्ना-तराज़ियाँ