जीना भी आ गया मुझे मरना भी आ गया
पहचानने लगा हूँ तुम्हारी नज़र को मैं
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रूदाद-ए-चमन सुनता हूँ इस तरह क़फ़स में
मजाज़ कैसा कहाँ हक़ीक़त अभी तुझे कुछ ख़बर नहीं है
मता-ए-ज़ीस्त क्या हम ज़ीस्त का हासिल समझते हैं
ज़ाहिद ने मिरा हासिल-ए-ईमाँ नहीं देखा
ऐ शैख़ वो बसीत हक़ीक़त है कुफ़्र की
वो शोरिशें निज़ाम-ए-जहाँ जिन के दम से है
क़हर है थोड़ी सी भी ग़फ़लत तरीक़-ए-इश्क़ में
माइल-ए-शेर-ओ-ग़ज़ल फिर है तबीअत 'असग़र'
न खुले उक़्दा-हा-ए-नाज़-ओ-नियाज़
शिकवा न चाहिए कि तक़ाज़ा न चाहिए
अक्स किस चीज़ का आईना-ए-हैरत में नहीं
नियाज़-ए-इश्क़ को समझा है क्या ऐ वाइज़-ए-नादाँ