तमाम उम्र जिसे मैं उबूर कर न सका
दरून-ए-ज़ात मिरे बे-कनार सा कुछ है
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ऐ मिरे ग़ुबार-ए-सर तू ही तो नहीं तन्हा राएगाँ तो मैं भी हूँ
सफ़र से पहले सराबों का सिलसिला रख आए
वो दर्द हूँ कोई चारा नहीं है जिस का कहीं
तू अपने शहर-ए-तरब से न पूछ हाल मिरा
सराब-ए-मअनी-ओ-मफ़्हूम में भटकते हैं
मिरी कहानी रक़म हुई है हवा के औराक़-ए-मुंतशिर पर
रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़
क्यूँ मुझ से गुरेज़ाँ है मैं तेरा मुक़द्दर हूँ
बुझ गए मंज़र उफ़ुक़ पर हर निशाँ मद्धम हुआ
अक्स जल जाएँगे आईने बिखर जाएँगे
हम दिल से रहे तेज़ हवाओं के मुख़ालिफ़
देख के अर्ज़ां लहू सुर्ख़ी-ए-मंज़र ख़मोश