हम दिल से रहे तेज़ हवाओं के मुख़ालिफ़
जब थम गया तूफ़ाँ तो क़दम घर से निकाला
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अब ये समझे कि अंधेरा भी ज़रूरी शय है
गुज़रते जा रहे हैं क़ाफ़िले तू ही ज़रा रुक जा
तू अपने शहर-ए-तरब से न पूछ हाल मिरा
ऐ मिरे ग़ुबार-ए-सर तू ही तो नहीं तन्हा राएगाँ तो मैं भी हूँ
नए पैकर नए साँचे में ढलना चाहता हूँ मैं
सराब-ए-मअनी-ओ-मफ़्हूम में भटकते हैं
किया गर्दिशों के हवाले उसे चाक पर रख दिया
रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़
ख़ता ये थी कि मैं आसानियों का तालिब था
रंग सारे अपने अंदर रफ़्तगाँ के हैं
मिरे शौक़-ए-सैर-ओ-सफ़र को अब नए इक जहाँ की नुमूद कर
यही नहीं कि किसी याद ने मलूल किया