गुज़रते जा रहे हैं क़ाफ़िले तू ही ज़रा रुक जा
ग़ुबार-ए-राह तेरे साथ चलना चाहता हूँ मैं
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मिरी कहानी रक़म हुई है हवा के औराक़-ए-मुंतशिर पर
ख़ता ये थी कि मैं आसानियों का तालिब था
तू अपने शहर-ए-तरब से न पूछ हाल मिरा
सराब-ए-मअनी-ओ-मफ़्हूम में भटकते हैं
कहाँ भटकती फिरेगी अँधेरी गलियों में
जल रहा हूँ तो अजब रंग ओ समाँ है मेरा
पाँव उस के भी नहीं उठते मिरे घर की तरफ़
मिज़ा पे ख़्वाब नहीं इंतिज़ार सा कुछ है
हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला
सफ़र से पहले सराबों का सिलसिला रख आए
मैं एक रेत का पैकर था और बिखर भी गया
आ गया कौन ये आज उस के मुक़ाबिल 'असलम'