ख़ता ये थी कि मैं आसानियों का तालिब था
सज़ा ये है कि मिरा तीशा-ए-हुनर भी गया
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अब ये समझे कि अंधेरा भी ज़रूरी शय है
रुक गया आ के जहाँ क़ाफ़िला-ए-रंग-ओ-नशात
वो दर्द हूँ कोई चारा नहीं है जिस का कहीं
जल रहा हूँ तो अजब रंग ओ समाँ है मेरा
दश्त मरऊब है कितना मिरी वीरानी से
मिरी कहानी रक़म हुई है हवा के औराक़-ए-मुंतशिर पर
गुज़रते जा रहे हैं क़ाफ़िले तू ही ज़रा रुक जा
ऐ मिरे ग़ुबार-ए-सर तू ही तो नहीं तन्हा राएगाँ तो मैं भी हूँ
मिरे शौक़-ए-सैर-ओ-सफ़र को अब नए इक जहाँ की नुमूद कर
रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़
आ गया कौन ये आज उस के मुक़ाबिल 'असलम'
बुझ गए मंज़र उफ़ुक़ पर हर निशाँ मद्धम हुआ