अब ये समझे कि अंधेरा भी ज़रूरी शय है
बुझ गईं आँखें उजालों की फ़रावानी से
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यही नहीं कि किसी याद ने मलूल किया
मैं एक रेत का पैकर था और बिखर भी गया
मिरे शौक़-ए-सैर-ओ-सफ़र को अब नए इक जहाँ की नुमूद कर
नए पैकर नए साँचे में ढलना चाहता हूँ मैं
रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़
कहाँ भटकती फिरेगी अँधेरी गलियों में
ख़ता ये थी कि मैं आसानियों का तालिब था
गुज़रते जा रहे हैं क़ाफ़िले तू ही ज़रा रुक जा
सफ़र से पहले सराबों का सिलसिला रख आए
तेरे कूचे की हवा पूछे है अब हम से
हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला