बे-रंग न वापस कर इक संग ही दे सर को
कब से तिरा तालिब हूँ कब से तिरे दर पर हूँ
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ख़ता ये थी कि मैं आसानियों का तालिब था
अब ये समझे कि अंधेरा भी ज़रूरी शय है
गुज़रते जा रहे हैं क़ाफ़िले तू ही ज़रा रुक जा
मिज़ा पे ख़्वाब नहीं इंतिज़ार सा कुछ है
हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला
तू अपने शहर-ए-तरब से न पूछ हाल मिरा
ऐ मिरे ग़ुबार-ए-सर तू ही तो नहीं तन्हा राएगाँ तो मैं भी हूँ
रंग सारे अपने अंदर रफ़्तगाँ के हैं
तेरे कूचे की हवा पूछे है अब हम से
किया गर्दिशों के हवाले उसे चाक पर रख दिया
कहाँ भटकती फिरेगी अँधेरी गलियों में
रुक गया आ के जहाँ क़ाफ़िला-ए-रंग-ओ-नशात