कहाँ भटकती फिरेगी अँधेरी गलियों में
हम इक चराग़ सर-ए-कूचा-हवा रख आए
Anwar Masood
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Gulzar
Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
Wasi Shah
Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Ahmad Faraz
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अब ये समझे कि अंधेरा भी ज़रूरी शय है
रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़
रंग सारे अपने अंदर रफ़्तगाँ के हैं
पाँव उस के भी नहीं उठते मिरे घर की तरफ़
दश्त मरऊब है कितना मिरी वीरानी से
न मलाल-ए-हिज्र न मुंतज़िर हैं हवा-ए-शाम-ए-विसाल के
तमाम उम्र जिसे मैं उबूर कर न सका
मिरे शौक़-ए-सैर-ओ-सफ़र को अब नए इक जहाँ की नुमूद कर
हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला
पत्थरों पर वादियों में नक़्श-ए-पा मेरा भी है
देख के अर्ज़ां लहू सुर्ख़ी-ए-मंज़र ख़मोश