यही नहीं कि किसी याद ने मलूल किया
कभी कभी तो यूँही बे-सबब भी रोए हैं
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तमाम उम्र जिसे मैं उबूर कर न सका
मैं एक रेत का पैकर था और बिखर भी गया
रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़
मैं हज्व इक अपने हर क़सीदे की रद में तहरीर कर रहा हूँ
हम दिल से रहे तेज़ हवाओं के मुख़ालिफ़
पाँव उस के भी नहीं उठते मिरे घर की तरफ़
ऐ मिरे ग़ुबार-ए-सर तू ही तो नहीं तन्हा राएगाँ तो मैं भी हूँ
बुझ गए मंज़र उफ़ुक़ पर हर निशाँ मद्धम हुआ
नए पैकर नए साँचे में ढलना चाहता हूँ मैं
जल रहा हूँ तो अजब रंग ओ समाँ है मेरा
मिरे शौक़-ए-सैर-ओ-सफ़र को अब नए इक जहाँ की नुमूद कर
तू अपने शहर-ए-तरब से न पूछ हाल मिरा