तेग़-ए-नफ़स को बहुत नाज़ था रफ़्तार पर
हो गई आख़िर मिरे ख़ूँ में नहा कर ख़मोश
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ख़ता ये थी कि मैं आसानियों का तालिब था
रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़
ऐ मिरे ग़ुबार-ए-सर तू ही तो नहीं तन्हा राएगाँ तो मैं भी हूँ
जल रहा हूँ तो अजब रंग ओ समाँ है मेरा
किया गर्दिशों के हवाले उसे चाक पर रख दिया
रंग सारे अपने अंदर रफ़्तगाँ के हैं
हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला
मैं एक रेत का पैकर था और बिखर भी गया
मिज़ा पे ख़्वाब नहीं इंतिज़ार सा कुछ है
अक्स जल जाएँगे आईने बिखर जाएँगे
बुझ गए मंज़र उफ़ुक़ पर हर निशाँ मद्धम हुआ