हिन्दू चला गया न मुसलमाँ चला गया
इंसाँ की जुस्तुजू में इक इंसाँ चला गया
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आसमाँ तक जो नाला पहुँचा है
या तो किसी को जुरअत-ए-दीदार ही न हो
परतव-ए-साग़र-ए-सहबा क्या था
साज़गार है हमदम इन दिनों जहाँ अपना
इज़्न-ए-ख़िराम लेते हुए आसमाँ से हम
कमाल-ए-इश्क़ है दीवाना हो गया हूँ मैं
मुझे जाना है इक दिन
वो नक़ाब आप से उठ जाए तो कुछ दूर नहीं
शाएर हूँ और अमीं हूँ उरूस-ए-सुख़न का मैं
ये मेरी दुनिया ये मेरी हस्ती
तिरे माथे पे ये आँचल तो बहुत ही ख़ूब है लेकिन
अयादत