दिलों से ख़ौफ़ निकलता नहीं अज़ाबों का
ज़मीं ने ओढ़ लिए सर पर आसमाँ फिर से
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वो एक शख़्स कि मंज़िल भी रास्ता भी है
थोड़ी सी उस तरफ़ भी नज़र होनी चाहिए
वो दश्त-ए-कर्ब-ओ-बला में उतरने देता नहीं
भटक रही है 'अता' ख़ल्क़-ए-बे-अमाँ फिर से
वो सुकून-ए-जिस्म-ओ-जाँ गिर्दाब-ए-जाँ होने को है
वो गर्द है कि वक़्त से ओझल तो मैं भी हूँ
थोड़ी सी इस तरफ़ भी नज़र होनी चाहिए
मंज़िलें भी ये शिकस्ता-बाल-ओ पर भी देखना
उसे अब भूल जाने का इरादा कर लिया है
गुम हुआ जाता है कोई मंज़िलों की गर्द में
जिस की ख़ातिर मैं भुला बैठा था अपने आप को