ऐ मुझ को फ़रेब देने वाले
मैं तुझ पे यक़ीन कर चुका हूँ
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बा-वफ़ा था तो मुझे पूछने वाले भी न थे
फिर कोई नया ज़ख़्म नया दर्द अता हो
सुकूत-ए-शब से इक नग़्मा सुना है
दम-ब-दम बढ़ रही है ये कैसी सदा शहर वालो सुनो
न मंज़िल हूँ न मंज़िल-आश्ना हूँ
जी न सकूँ मैं जिस के बग़ैर
दिल की मसर्रतें नई जाँ का मलाल है नया
लम्हों के अज़ाब सह रहा हूँ
'अतहर' तुम ने इश्क़ किया कुछ तुम भी कहो क्या हाल हुआ
ये धूप तो हर रुख़ से परेशाँ करेगी
इतने दिन के बाद तू आया है आज