कहाँ पहुँच के हदें सब तमाम होती हैं
इस आसमान से नीचे उतर के देखा जाए
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अब्बा के नाम
दिल के नज़दीक तो साया भी नहीं है कोई
कुछ और दिन अभी इस जा क़याम करना था
अपने सूखे हुए गुल-दान का ग़म है मुझ को
ज़रा से रिज़्क़ में बरकत भी कितनी होती थी
कुछ और दिन अभी उस जा क़याम करना था
चराग़ हाथों के बुझ रहे हैं सितारा हर रह-गुज़र में रख दे
कीसा-ए-दरवेश में जो भी है ज़र उतना ही है
इस दश्त नवर्दी में जीना बहुत आसाँ था
वो
वो रात नींद की दहलीज़ पर तमाम हुई