वो रात नींद की दहलीज़ पर तमाम हुई
अभी तो ख़्वाब पे इक और ख़्वाब धरना था
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तेरा ही निशान-ए-पा रहा हूँ मैं
कौन गुज़रा था मेहराब-ए-जाँ से अभी ख़ामुशी शोर भरता हुआ
ख़्वाबों की किर्चियाँ मिरी मुट्ठी में भर न जाए
जब भी तन्हाई के एहसास से घबराता हूँ
रेल की पटरी ने उस के टुकड़े टुकड़े कर दिए
आसमाँ का सितारा न महताब है
ज़रा से रिज़्क़ में बरकत भी कितनी होती थी
पानी था मगर अपने ही दरिया से जुदा था
किसी इक ज़ख़्म के लब खुल गए थे
ये देखा जाए वो कितने क़रीब आता है
मैं छुपा रहूँगा निगाह-ओ-ज़ख़्म की ओट में