ये देखा जाए वो कितने क़रीब आता है
फिर इस के बाद ही इंकार कर के देखा जाए
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वो तवानाई कहाँ जो कल तलक आज़ा में थी
बहुत दिन से तुम्हें देखा नहीं था
कुछ बदन की ज़बान कहती थी
क़ल्ब-गह में ज़रा ज़रा सा कुछ
ये राह-ए-तलब यारो गुमराह भी करती है
अपने सूखे हुए गुल-दान का ग़म है मुझ को
आईना आईना तैरता कोई अक्स
अभी तो काँटों-भरी झाड़ियों में अटका है
ख़्वाबों की किर्चियाँ मिरी मुट्ठी में भर न जाए
जब भी तन्हाई के एहसास से घबराता हूँ
कुछ और दिन अभी इस जा क़याम करना था