अभी तो काँटों-भरी झाड़ियों में अटका है
कभी दिखाई दिया था हरा-भरा वो भी
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कीसा-ए-दरवेश में जो भी है ज़र उतना ही है
दिल के नज़दीक तो साया भी नहीं है कोई
मैं कि तुम पे बाज़ हूँ
मैं ख़ुद से दूर था और मुझ से दूर था वो भी
तू भी तो एक लफ़्ज़ है इक दिन मिरे बयाँ में आ
ये राह-ए-तलब यारो गुमराह भी करती है
तिरे फ़लक ही से टूटने वाली रौशनी के हैं अक्स सारे
वो जो सर्फ़-ए-निगाह करता है
अपने सूखे हुए गुल-दान का ग़म है मुझ को
कहाँ पहुँच के हदें सब तमाम होती हैं
फ़ज़ा में हाथ तो उट्ठे थे एक साथ कई