ये राह-ए-तलब यारो गुमराह भी करती है
सामान उसी का था जो बे-सर-ओ-सामाँ था
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तू भी तो एक लफ़्ज़ है इक दिन मिरे बयाँ में आ
वो तवानाई कहाँ जो कल तलक आज़ा में थी
अपने सूखे हुए गुल-दान का ग़म है मुझ को
क्या तुम ने कभी ज़िंदगी करते हुए देखा
ख़्वाबों की किर्चियाँ मिरी मुट्ठी में भर न जाए
मैं जो ठहरा ठहरता चला जाऊँगा
जब भी तन्हाई के एहसास से घबराता हूँ
गरचे मैं सर से पैर तलक नोक-ए-संग था
रेल की पटरी ने उस के टुकड़े टुकड़े कर दिए
तुम ने तो फ़क़त उस की रिवायत ही सुनी है
इस गली से उस गली तक दौड़ता रहता हूँ मैं
ये देखा जाए वो कितने क़रीब आता है