ख़्वाबों की किर्चियाँ मिरी मुट्ठी में भर न जाए
आइंदा लम्हा अब के भी यूँही गुज़र न जाए
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कुछ और दिन अभी उस जा क़याम करना था
तिरे फ़लक ही से टूटने वाली रौशनी के हैं अक्स सारे
क़ल्ब-गह में ज़रा ज़रा सा कुछ
पानी था मगर अपने ही दरिया से जुदा था
अब्बा के नाम
चराग़ हाथों के बुझ रहे हैं सितारा हर रह-गुज़र में रख दे
बहुत दिनों में कहीं रास्ते बदलते थे
मुझ में ख़ुद मेरी अदम-मौजूदगी शामिल रही
इस गली से उस गली तक दौड़ता रहता हूँ मैं
मिरे सुपुर्द कहाँ वो ख़ज़ाना करता था