किस के पैरों के नक़्श हैं मुझ में
मेरे अंदर ये कौन चलता है
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हम ज़मीं की तरफ़ जब आए थे
तेरा ही निशान-ए-पा रहा हूँ मैं
ये राह-ए-तलब यारो गुमराह भी करती है
वो मेरे नाले का शोर ही था शब-ए-सियह की निहायतों में
दिन के हंगामे जिला देते हैं मुझ को वर्ना
वो तवानाई कहाँ जो कल तलक आज़ा में थी
पानी था मगर अपने ही दरिया से जुदा था
कीसा-ए-दरवेश में जो भी है ज़र उतना ही है
मैं जो ठहरा ठहरता चला जाऊँगा
किसी इक ज़ख़्म के लब खुल गए थे
अभी तो काँटों-भरी झाड़ियों में अटका है