पानी था मगर अपने ही दरिया से जुदा था
चढ़ते हुए देखा न उतरते हुए देखा
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मिरे सुपुर्द कहाँ वो ख़ज़ाना करता था
मैं जो ठहरा ठहरता चला जाऊँगा
ज़रा से रिज़्क़ में बरकत भी कितनी होती थी
बड़ी चीज़ है ये सुपुर्दगी का महीन पल
आसमाँ का सितारा न महताब है
कुछ बदन की ज़बान कहती थी
हम ज़मीं की तरफ़ जब आए थे
कहाँ पहुँच के हदें सब तमाम होती हैं
चलो सुरंग से पहले गुज़र के देखा जाए
वो तवानाई कहाँ जो कल तलक आज़ा में थी
कुछ और दिन अभी उस जा क़याम करना था