रेल की पटरी ने उस के टुकड़े टुकड़े कर दिए
आप अपनी ज़ात से उस को बहुत इंकार था
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कौन गुज़रा था मेहराब-ए-जाँ से अभी ख़ामुशी शोर भरता हुआ
बहुत दिन से तुम्हें देखा नहीं था
ज़रा से रिज़्क़ में बरकत भी कितनी होती थी
तिरे फ़लक ही से टूटने वाली रौशनी के हैं अक्स सारे
वो बात थी तो कई दूसरे सबब भी थे
सफ़र-गिरफ़्ता रहे कुश्तगान-ए-नान-ओ-नमक
बहुत दिनों में कहीं रास्ते बदलते थे
हर मंज़र के अंदर भी इक मंज़र है
कुछ बदन की ज़बान कहती थी
दिल के नज़दीक तो साया भी नहीं है कोई
किस के पैरों के नक़्श हैं मुझ में
चलो सुरंग से पहले गुज़र के देखा जाए