वो बात थी तो कई दूसरे सबब भी थे
ये बात है तो सबब दूसरा नहीं होगा
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तुम ने तो फ़क़त उस की रिवायत ही सुनी है
ये राह-ए-तलब यारो गुमराह भी करती है
ख़्वाबों की किर्चियाँ मिरी मुट्ठी में भर न जाए
हम ज़मीं की तरफ़ जब आए थे
बहुत दिनों में कहीं रास्ते बदलते थे
तिरे फ़लक ही से टूटने वाली रौशनी के हैं अक्स सारे
किसी इक ज़ख़्म के लब खुल गए थे
तेरा ही निशान-ए-पा रहा हूँ मैं
जब भी तन्हाई के एहसास से घबराता हूँ
कीसा-ए-दरवेश में जो भी है ज़र उतना ही है
दिन के हंगामे जिला देते हैं मुझ को वर्ना