किसी इक ज़ख़्म के लब खुल गए थे
मैं इतनी ज़ोर से चीख़ा नहीं था
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फ़रार के लिए जब रास्ता नहीं होगा
फ़ज़ा में हाथ तो उट्ठे थे एक साथ कई
क़ल्ब-गह में ज़रा ज़रा सा कुछ
हम ज़मीं की तरफ़ जब आए थे
कुछ और दिन अभी उस जा क़याम करना था
बहुत दिनों में कहीं रास्ते बदलते थे
तुम ने तो फ़क़त उस की रिवायत ही सुनी है
कुछ बदन की ज़बान कहती थी
कोई शब ढूँडती थी मुझ को और मैं
कुछ और दिन अभी इस जा क़याम करना था
मैं जो ठहरा ठहरता चला जाऊँगा