कुछ बदन की ज़बान कहती थी
आँसुओं की ज़बान में था कुछ
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तिरे फ़लक ही से टूटने वाली रौशनी के हैं अक्स सारे
क़ल्ब-गह में ज़रा ज़रा सा कुछ
मैं जो ठहरा ठहरता चला जाऊँगा
मुझ से बे-ज़ारो न यूँ संग से मारो मुझ को
वो बात थी तो कई दूसरे सबब भी थे
ये राह-ए-तलब यारो गुमराह भी करती है
गरचे मैं सर से पैर तलक नोक-ए-संग था
ज़रा से रिज़्क़ में बरकत भी कितनी होती थी
आने वाला तो हर इक लम्हा गुज़र जाता है
रेल की पटरी ने उस के टुकड़े टुकड़े कर दिए
अब्बा के नाम
मैं छुपा रहूँगा निगाह-ओ-ज़ख़्म की ओट में