ज़रा से रिज़्क़ में बरकत भी कितनी होती थी
और इक चराग़ से कितने चराग़ जलते थे
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अंधेरा मेरे बातिन में पड़ा था
कितना मुश्किल है
मिरे सुपुर्द कहाँ वो ख़ज़ाना करता था
कोई शब ढूँडती थी मुझ को और मैं
हर मंज़र के अंदर भी इक मंज़र है
हम ज़मीं की तरफ़ जब आए थे
कुछ बदन की ज़बान कहती थी
दिन के हंगामे जिला देते हैं मुझ को वर्ना
पानी था मगर अपने ही दरिया से जुदा था
गरचे मैं सर से पैर तलक नोक-ए-संग था
ये देखा जाए वो कितने क़रीब आता है
कहाँ पहुँच के हदें सब तमाम होती हैं