हर मंज़र के अंदर भी इक मंज़र है
देखने वाला भी तो हो तय्यार मुझे
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बहुत दिनों में कहीं रास्ते बदलते थे
फ़ज़ा में हाथ तो उट्ठे थे एक साथ कई
एक सूखी हड्डियों का इस तरफ़ अम्बार था
वो मेरे नाले का शोर ही था शब-ए-सियह की निहायतों में
वो जो सर्फ़-ए-निगाह करता है
जब भी तन्हाई के एहसास से घबराता हूँ
मैं ख़ुद से दूर था और मुझ से दूर था वो भी
ख़्वाबों की किर्चियाँ मिरी मुट्ठी में भर न जाए
चलो सुरंग से पहले गुज़र के देखा जाए
लम्स की शिद्दतें महफ़ूज़ कहाँ रहती हैं
अभी तो काँटों-भरी झाड़ियों में अटका है
अंधेरा मेरे बातिन में पड़ा था