दिन के हंगामे जिला देते हैं मुझ को वर्ना
सुब्ह से पहले कई मर्तबा मर जाता हूँ
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पानी था मगर अपने ही दरिया से जुदा था
आने वाला तो हर इक लम्हा गुज़र जाता है
ज़रा से रिज़्क़ में बरकत भी कितनी होती थी
कहाँ पहुँच के हदें सब तमाम होती हैं
आईना आईना तैरता कोई अक्स
अभी तो काँटों-भरी झाड़ियों में अटका है
रेल की पटरी ने उस के टुकड़े टुकड़े कर दिए
एक सूखी हड्डियों का इस तरफ़ अम्बार था
ये राह-ए-तलब यारो गुमराह भी करती है
फ़ज़ा में हाथ तो उट्ठे थे एक साथ कई
मिरे सुपुर्द कहाँ वो ख़ज़ाना करता था
तिरे फ़लक ही से टूटने वाली रौशनी के हैं अक्स सारे