इस गली से उस गली तक दौड़ता रहता हूँ मैं
रात उतनी ही मयस्सर है सफ़र उतना ही है
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अपने सूखे हुए गुल-दान का ग़म है मुझ को
कुछ और दिन अभी उस जा क़याम करना था
वो मेरे नाले का शोर ही था शब-ए-सियह की निहायतों में
ये राह-ए-तलब यारो गुमराह भी करती है
क़ल्ब-गह में ज़रा ज़रा सा कुछ
वो
दिन के हंगामे जिला देते हैं मुझ को वर्ना
बहुत दिन से तुम्हें देखा नहीं था
कीसा-ए-दरवेश में जो भी है ज़र उतना ही है
आसमाँ का सितारा न महताब है
दे कर पिछली यादों का अम्बार मुझे
मिरे सुपुर्द कहाँ वो ख़ज़ाना करता था