अपने सूखे हुए गुल-दान का ग़म है मुझ को
आँख में अश्क का क़तरा भी नहीं है कोई
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तेरा ही निशान-ए-पा रहा हूँ मैं
लम्स की शिद्दतें महफ़ूज़ कहाँ रहती हैं
वो
बड़ी चीज़ है ये सुपुर्दगी का महीन पल
मैं कि तुम पे बाज़ हूँ
दिन के हंगामे जिला देते हैं मुझ को वर्ना
अभी तो काँटों-भरी झाड़ियों में अटका है
इस गली से उस गली तक दौड़ता रहता हूँ मैं
आईना आईना तैरता कोई अक्स
चलो सुरंग से पहले गुज़र के देखा जाए
मिरे सुपुर्द कहाँ वो ख़ज़ाना करता था
मैं छुपा रहूँगा निगाह-ओ-ज़ख़्म की ओट में