आप जिस रह-गुज़र-ए-दिल से कभी गुज़रे थे
उस पे ता-उम्र किसी को भी गुज़रने न दिया
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अपनी सारी काविशों को राएगाँ मैं ने किया
आने वाले हादसों के ख़ौफ़ से सहमे हुए
ये मैं था या मिरे अंदर का ख़ौफ़ था जिस ने
मैं बिछड़ कर तुझ से तेरी रूह के पैकर में हूँ
तुम्हें भी मुझ में न शायद वो पहली बात मिले
शायद तुम भी अब न मुझे पहचान सको
मैं अपने आप से इक खेल करने वाला हूँ
कुछ ऐसे फूल भी गुज़रे हैं मेरी नज़रों से
सरहद-ए-जिस्म से बाहर कहीं घर लिक्खा था
डूब कर ख़ुद में कभी यूँ बे-कराँ हो जाऊँगा
देखने वाले मुझे मेरी नज़र से देख ले