शायद तुम भी अब न मुझे पहचान सको
अब मैं ख़ुद को अपने जैसा लगता हूँ
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अपनी सारी काविशों को राएगाँ मैं ने किया
उसे भी जाते हुए तुम ने मुझ से छीन लिया
किसे मिलती नजात 'आज़ाद' हस्ती के मसाइल से
लम्हा लम्हा इक नई सई-ए-बक़ा करती हुई
साल-ए-नौ आता है तो महफ़ूज़ कर लेता हूँ मैं
दश्त-ए-ज़ुल्मात में हम-राह मिरे
कर्ब हरे मौसम का तब तक सहना पड़ता है
हर इक शिकस्त को ऐ काश इस तरह मैं सहूँ
मैं बिछड़ कर तुझ से तेरी रूह के पैकर में हूँ
समेट लाता हूँ मोती तुम्हारी यादों के
सरहद-ए-जिस्म से बाहर कहीं घर लिक्खा था
जो ग़म में जलते रहे उम्र-भर दिया बन कर