दश्त-ए-ज़ुल्मात में हम-राह मिरे
कोई तो है जो जला है मुझ में
Gulzar
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Anwar Masood
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Mohsin Naqvi
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वो वक़्त आएगा जब ख़ुद तुम्ही ये सोचोगी
रौशनी फैली तो सब का रंग काला हो गया
मैं साथ ले के चलूँगा तुम्हें ऐ हम-सफ़रो
वो रूह के गुम्बद में सदा बन के मिलेगा
ख़ला-ए-ज़ेहन के गुम्बद में गूँजता हूँ मैं
यादों की महफ़िल में खो कर
समेट लाता हूँ मोती तुम्हारी यादों के
अपनी सारी काविशों को राएगाँ मैं ने किया
समेट लो मुझे अपनी सदा के हल्क़ों में
वो जो किसी का रूप धार कर आया था
साहिल पे रुक के सू-ए-समुंदर न देखिए
कर्ब हरे मौसम का तब तक सहना पड़ता है