अपनी सारी काविशों को राएगाँ मैं ने किया
मेरे अंदर जो न था उस को बयाँ मैं ने किया
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आने वाले हादसों के ख़ौफ़ से सहमे हुए
सरहद-ए-जिस्म से बाहर कहीं घर लिक्खा था
रौशनी फैली तो सब का रंग काला हो गया
ये मैं था या मिरे अंदर का ख़ौफ़ था जिस ने
शायद तुम भी अब न मुझे पहचान सको
किस से पूछें रात-भर अपने भटकने का सबब
जो ग़म में जलते रहे उम्र-भर दिया बन कर
बहुत लम्बा सफ़र तपती सुलगती ख़्वाहिशों का था
हर इक शिकस्त को ऐ काश इस तरह मैं सहूँ
फिर इस के बा'द का कोई न हो गुज़र मुझ में