किसे मिलती नजात 'आज़ाद' हस्ती के मसाइल से
कि हर कोई मुक़य्यद आब ओ गिल के सिलसिलों का था
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गो मिरा साथ मिरी अपनी नज़र ने न दिया
आने वाले हादसों के ख़ौफ़ से सहमे हुए
दश्त-ए-ज़ुल्मात में हम-राह मिरे
डूब कर ख़ुद में कभी यूँ बे-कराँ हो जाऊँगा
हर इक ने देखा मुझे अपनी अपनी नज़रों से
ये मैं था या मिरे अंदर का ख़ौफ़ था जिस ने
मैं बिछड़ कर तुझ से तेरी रूह के पैकर में हूँ
रौशनी फैली तो सब का रंग काला हो गया
वक़्त का ये मोड़ कैसा है कि तुझ से मिल के भी
कर्ब हरे मौसम का तब तक सहना पड़ता है
उम्र भर चलते रहे हम वक़्त की तलवार पर
वो रूह के गुम्बद में सदा बन के मिलेगा