आज आईने में ख़ुद को देख कर याद आ गया
एक मुद्दत हो गई जिस शख़्स को देखे हुए
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ख़ला-ए-ज़ेहन के गुम्बद में गूँजता हूँ मैं
मेरा तो नाम रेत के सागर पे नक़्श है
समेट लाता हूँ मोती तुम्हारी यादों के
दश्त-ए-ज़ुल्मात में हम-राह मिरे
किस से पूछें रात-भर अपने भटकने का सबब
बहुत लम्बा सफ़र तपती सुलगती ख़्वाहिशों का था
मैं अपने आप से इक खेल करने वाला हूँ
हमारी आँख में ठहरा हुआ समुंदर था
तुम्हें भी मुझ में न शायद वो पहली बात मिले
जो ग़म में जलते रहे उम्र-भर दिया बन कर
समेट लो मुझे अपनी सदा के हल्क़ों में
कुछ ऐसे फूल भी गुज़रे हैं मेरी नज़रों से