ब-वक़्त-ए-शाम समुंदर में गिर गया सूरज
तमाम दिन की थकन से निढाल ऐसा था
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हैरान हूँ कि आज ये क्या हादिसा हुआ
मैं महल रेत के सहरा में बनाने बैठा
थी उस की बंद मुट्ठी में चिट्ठी दबी हुई
हुरूफ़ ख़ाली सदफ़ और निसाब ज़ख़्मों के
दिल ख़ाक हुआ प्यार की इस आग में जल कर
मिरी दुनिया अकेली हो रही है
मैं अपने शहर में अपना ही चेहरा खो बैठा
सच बोलना चाहें भी तो बोला नहीं जाता
चाहा है जिस का साया शजर वो बबूल है
दरीचे सो गए शब जागती है
हमारे चेहरे पे रंज-ओ-मलाल ऐसा था