चाँद तारे इक दिया और रात का कोमल बदन
सुब्ह-दम बिखरे पड़े थे चार सू मेरी तरह
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धूप के जाते ही मर जाऊँगा मैं
दश्त-ओ-सहरा में समुंदर में सफ़र है मेरा
मुसाफ़िरों से कहो अपनी प्यास बाँध रखें
तमाम शहर को तारीकियों से शिकवा है
ज़मीं की आँख से मंज़र कोई उतारते हैं
मैं नींद के ऐवान में हैरान था कल शब
आएँगे नज़र सुब्ह के आसार में हम लोग
फिर नए साल की सरहद पे खड़े हैं हम लोग
मैं अपने गिर्द लकीरें बिछाए बैठा हूँ
वो एक राज़! जो मुद्दत से राज़ था ही नहीं
मैं छुप रहा हूँ कि जाने किस दम
जिस तरफ़ चाहूँ पहुँच जाऊँ मसाफ़त कैसी